Friday, January 31, 2014

बेहिसाब ज़ख़्म (गीत)

बेहिसाब ज़ख़्म (गीत)

दिए थे कभी, जो बेहिसाब मैंने, तुने ।
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।
अन्तरा-१.
इश्क है बेमानी, लहु हो गया पानी ?
देख, कितना बहाया आब मैंने, तुने..!
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।
अन्तरा-२.
तयशुदा सफ़र, तय हमसफ़र,या ख़ुदा..!
रब का भी किया न लिहाज़ मैंने, तुने ?
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।
अन्तरा-३.
तशनगी है सुबह, आग उगलती शाम..!
कहा अभी,दिल है बहुत उदास,मैंने, तुने ।
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।
तशनगी=प्यास.
अन्तरा-४.
जरा-जरा, हरा-भरा, इक सा मिलाजुला..!
हाँ, पहना तो है, वही लिबास मैंने, तुने ।
रखा न ज़ख़्मों का हिसाब मैंने, तुने ।
मार्कण्ड दवे । दिनांकः ३०-०१-२०१४.



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